स्वाभिमान की रोटी |
पैरो में बेड़िया है,
कुछ मजबूरिया है,
दिल के दर्द को समेट लिया मैंने,
अपने आप को बंद कर लिया मैंने|
भूखे पेट, मेले में भटकता हू,
बिक जाये कुछ सामान,
आश लिए, हर पल, हर नज़र को देखता हू।
यू ही बिखेरा हू,
अपनी सामान को,
किसी अलमीरा में सजा कर नहीं,
रोड किनारे, फटे गमछे पर रखा हू|
चलते राहगीर से ये कपकपाती आवाज़, आवाज़ लगाती है,
पुरानी दुकान से नयी सामान खरीद लो,
बूढ़े, बुजुर्ग का आशीर्वाद फ्री में ले लो
फरियाद सुन, जो भी सामान खरीदता है,
वह मेरे लिए भगवान का रूप होता है |
आखो पर लगे, टूटे शीशे से उसे बार-बार देखता हू
इन कपकपाती हाथो से सामान
और खूब सारी भरकर,दुआए देता हू।
मै बूढ़ा, बुजुर्ग, स्वाभिमान की एक रोटी के लिए,
हर रोज, घंटो, सुबह-शाम, नुकड़, चौराहे पर,
किसी ग्राहक का इंतज़ार करता हू।
शम्भू कुमार की कलम से…