प्रेम और एकता |
हमने ही तो प्रेम धरा में
क्रोध का बांध बनाया है|
छोड़ एकता की बंधन को
भेदभाव अपनाया है||
हमने ही पावन धरती में
नफरत का बीज बोया है|
स्वार्थ लोभ की ज्वाला में
आपनो को ही खोया है||
धर्म जात का पाठ सभी को
हमने ही सिखलाया है|
हमने ही तो राम रहीम को
आपस में लड़वाया है||
स्वेत चन्द्रमा की ललाट पे
क्या खन्डित धरती रोयेगी
या प्रेम वृछ की छाया में
पुलकित होकर सोयेगी||
क्या इन्द्रधनुष सी धरती में
और रंग सजायेंगे|
या क्रोध-ईर्ष्या की
ज्वाला में नफरत को सुलगाएँगे||
क्या आर्यव्रत की धरती को
टुकड़ों में बटवाएंगे|
या वीर तिरंगे की मिट्टी में
प्रेम का बीज लगाएंगे||
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very nice, heart touching poem
Nice poem.
Isse kahte hain, Experience se bhare insaan ke wachan
Bahut khub